कृष्ण जाम्बवन्त युद्ध
एक बार क बात है , एक बार सत्रािजत ने भगवान सूयर् क उपासना करके उनसे स्यमन्तक मण प्राप्त क। उस मण का प्रकाश भगवान सूयर् के समान ह था। एक दन भगवान कृष्ण जब चौसर खेल रहे थे तभी सत्रािजत उस मण को पहन कर उनके पास आया। दूर से उसे आते देख कर यादव ने कहा, "हे कृष्ण! आपके दशर्न के लये साात् सूयर् भगवान या अिग्नदेव चले आ रहे ह।" इस पर श्री कृष्ण हँस कर बोले, "हे यादव! यह सत्रािजत है, उसने सूयर् भगवान से प्राप्त स्यमन्तक मण को पहन रखा है इसी लये वह तेजोमय हो रहा है।" उसी समय सत्रािजत वहाँ पर आ पहुँचा। सत्रािजत को देखकर उन यादव ने कहा, "अरे सत्रािजत! तेरे पास यह अलौकक दव्य मण है। अलौकक सुन्दर वस्तु का अधकार तो राजा होता है। इसलये तू इस मण को हमारे राजा उग्रसेन को दे दे।" कन्तु सत्रािजत यह बात सुन कर बना कुछ उत्तर दये ह वहाँ से उठ कर चला गया। सत्रािजत ने स्यमन्तक मण को अपने घर के एक देव मिन्दर म स्थापत कर दया। वह मण नत्य उसे आठ भार सोना देती थी। िजस स्थान म वह मण होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ह दूर हो जाते थे।
एक दन सत्रािजत का भाई प्रसेनिजत उस मण को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लये गया। वन म प्रसेनिजत तथा उसके घोड़े को एक संह ने मार डाला और वह मण छन ल। उस संह को ऋराज जाम्बवन्त ने मारकर वह मण प्राप्त कर ल और अपनी गुफा म चला गया। जाम्बवन्त ने उस मण को अपने बालक का खलौना बना दया।
जब प्रसेनिजत लौट कर नहं आया तो सत्रािजत ने समझा क मेरे भाई को श्री कृष्ण ने मारकर मण छन ल है। श्री कृष्ण जी पर चोर के सन्देह क बात पूरे द्वारकापुर म फैल गई। जब श्री कृष्णचन्द्र ने सुना क मुझ पर व्यथर् म चोर का कलंक लगा है तो वे इस कलंक को धोने के उद्देश्य से नगर के प्रमुख यादव का साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मण क खोज म नकले। वन म उन्हने घोड़ा सहत प्रसेनिजत को मरा हुआ देखा पर मण का कहं अता-पता नहं था। वहाँ नकट ह संह के पंज के चन्ह थे। वे संह के पदचन्ह के सहारे आगे बढ़े तो उन्ह संह भी मरा हुआ मला और वहाँ पर रछ के पैर के चन्ह मले जो क एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के नकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादव से कहा क तुम लोग यहं रुको। म इस गुफा म प्रवेश कर मण ले जाने वाले का
पता लगाता हूँ। इतना कहकर वे सभी यादव को गुफा के मुख पर छोड़ कर उस गुफा के भीतर चले गये। वहाँ जाकर उन्हने देखा क उस प्रकाशवान मण को रछ का एक बालक लये हुये खेल रहा है। श्री कृष्ण ने उस मण को वहाँ से उठा लया। यह देख कर जाम्बवन्त अत्यन्त क्रोधत होकर श्री कृष्ण को मारने के लये झपटा। जाम्बवन्त और श्री कृष्ण म भयंकर युद्ध होने लगा।
जब श्री कृष्ण जी गुफा से वापस नहं लौटे तो सारे यादव उन्ह मरा हुआ समझ कर बारह दन के उपरान्त वहाँ से द्वारका पुर वापस आ गये तथा समस्त वत्तान्त वसुदेव और देवक से कहा। वसुदेव और देवक व्याकुल होकर महामाया दुगार् क उपासना करने लगे। उनक उपासना से प्रसन्न होकर दुगार् देवी ने प्रकट होकर उन्ह आशीवार्द दया क तुम्हारा पुत्र तुम्ह अवश्य मलेगा।
श्री कृष्ण और जाम्बवन्त दोन ह पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा म अट्ठाइस दन व्यतीत हो गये। भगवान श्री कृष्ण क मार से महाबल जाम्बवन्त क नस टूट गई। वह अत व्याकुल हो उठा और अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगा। जाम्बवन्त के द्वारा श्री राम के स्मरण करते ह भगवान श्री कृष्ण ने श्री रामचन्द्र के रूप म उसे दशर्न दये। जाम्बवन्त उनके चरण म गर गया और बोला, "हे भगवान! अब मने जाना क आपने यदुवंश म अवतार लया है।" श्री कृष्ण ने कहा, "हे जाम्बवन्त! तुमने मेरे राम अवतार के समय रावण के वध हो जाने के पश्चात् मुझसे युद्ध करने क इच्छा व्यक्त क थी और मने तुमसे कहा था क म तुम्हार इच्छा अपने अगले अवतार म अवश्य पूर करूँगा। अपना वचन सत्य सद्ध करने के लये ह मने तुमसे यह युद्ध कया है।" जाम्बवन्त ने भगवान श्री कृष्ण क अनेक प्रकार से स्तुत क और अपनी कन्या जाम्बवन्ती का ववाह उनसे कर दया।
श्री कृष्ण जाम्बवन्त को साथ लेकर द्वारका पुर पहुँचे। उनके वापस आने से द्वारका पुर म चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई। श्री कृष्ण ने सत्रािजत को बुलवाकर उसक मण उसे वापस कर द। सत्रािजत अपने द्वारा श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अत लिज्जत हुआ और पश्चाताप करने लगा। प्रायिश्चत के रूप म उसने अपनी कन्या सत्यभामा का ववाह श्री कृष्ण के साथ कर दया और वह मण भी उन्ह दहेज म दे द। कन्तु शरनागत वत्सल श्री कृष्ण ने उस मण को स्वीकार न करके पुनः सत्रािजत को वापस कर दया।
Krishna Jambavat Yudh
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