होली

प्रति वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली पूजन- दहन तथा इससे अगले दिन गुलाल आदि रंगों से उल्लासपूर्ण उत्सव का चित्र भारत भर में कहीं भी देखा जा सकता है। होली दहनके पश्चात् तथा रंग खेलने में सभी परिचितों- अपरिचितों के प्रति सौहार्द एवं भ्रातृत्व का भाव इस पर्व की विलक्षणता को और अधिक विस्तृत छवि प्रदान करता है। मेरे घर में गोबर के उपले बना कर सामुदायिक होली की अग्नि द्वारा घर के आँगन में होली जलाना व उस अग्नि में गेहूँ- जौ के बालों को भूनना, अग्नि को अर्पित करने के पश्चात् घर के पास के परिवारों में उसे राम-राम कहते हुए वितरित करना, इस परम्परा का मैं साक्षी हूं। इससे गोधन के महत्व का होली के साथ सम्बन्ध भी स्थापित होता है, तथा परस्पर प्रेम- सौहार्द की भावना का भी। इस पर्व के ऐतिहासिक- सांस्कृतिक पक्ष के ज्ञान के रूप में प्राय हिरण्यकशिपु- प्रह्लाद- होलिका प्रकरण ही विख्यात है, इसके अतिरिक्त जानकारी का प्राय अभाव सा है, इसी कारण मैंने गत् वर्षों में होली के ऐतिहासिक सन्दर्भों को खोजने का जो प्रयास किया, उसके परिणामस्वरूप प्राप्त सूचनाओं को यहाँ उद्धृत करने का प्रयास कर रहा हूँ। इसका अधिकाधिक विस्तार हो सके यह अपेक्षा है। वैदिक पक्ष- अथर्ववेद में "रक्षोहणं बलगहनम्" आदि मन्त्रों से राक्षस दहन की प्रक्रियास्वरूप यज्ञाग्नि में हवि देने का वर्णन है। इसी दिन (पूर्णिमा) से प्रथम चातुर्मास सम्बन्धी ‘वैश्वेदेव’ नामक यज्ञ का आरम्भ होता था, जिसमे प्राचीन ‘आर्य’ समाज नई फसलों- गेहूँ, चना आदि की आहुति देकर फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करता था। संस्कृत कोष ग्रन्थ भुने अन्न को होलका नाम भी देते हैं। अत: भुने अन्न को ग्रहण करने की वैदिक प्रथा को होलकोत्सव अथवा होलिकोत्सव कहा गया तो कोई आश्चर्य नहीं। आज भी होली की अग्नि में गेहूँ- जौ- चने को भूनने स्वाहा करने व खाने की प्रथा है। यज्ञान्त में यज्ञ भस्म को शिर पर धारण कर उसका वन्दन करने की परम्परा ने उस भस्म (राख) को उड़ाने व अन्यों पर डालने के कारण ही हरि की धूलि से धूलहरि का ही विकृत स्वरूप सम्भवत: धुलैंडी बन गया है। पौराणिक पक्ष- नारदादि पुराणों में राजा हिरण्यकशिपु की बहन होलिका का विष्णुभक्त प्रह्लाद की मृत्यु के लिए अग्नि प्रवेश व उसमें प्रह्लाद के स्थान पर होलिका की मृत्यु से हरिभक्तों का प्रसन्न होना स्वाभाविक है। अन्याय व पातकों का भस्म होना निश्चित है, इस बात का विश्वास इस कथा के माध्यम से पुनर्जागृत हो उठता है। भविष्यपुराण में महाराजा रघु के राज्यकाल में ढुण्ढा नामक राक्षसी के आतंक के उपचार स्वरूप महर्षि वसिष्ठ के आदेशानुसर स्थान-स्थान पर हल्ला करते हुए अग्नि-प्रज्वलन करते हुए अग्नि क्रीड़ा का आयोजन कर राक्षसी बाध से समाज को मुक्त किया था। महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र ग्रन्थ में होलक उत्सव का उल्लेख है। किंशुक (ढाक) के पुष्पों के रंग से होली खेलने की व्यवस्था का वर्णन प्राप्त होता है। रत्नावली नटिका में महाराजा हर्ष द्वारा होली खेलने का हृदयग्राही वर्णन मिलता है। मुस्लिम पर्यटक के यात्रा वृत्तों में उस समय होली के उत्सव की व्यापकता का पता चलता है। मुग़ल शासक भी इस पर्व पर समारोह का आयोजन करते होने का उल्लेख इतिहासकार करते हैं। वैज्ञानिक पक्ष- जाड़े से गर्मी के सन्धिकाल में संक्रामक रोगों को अग्निताप द्वारा निष्क्रिय कर देने की बात होली दहन व जलती होली की परिक्रमा से समझ आती है। आयुर्वेद में वसन्त को कफ़कोपक माना गया है, तथा इसके शमन के लिए तीक्षण नस्य, लघु रूक्ष भोजन, व्यायाम, उद्वर्तन आदि श्रेष्ठ हैं। ये सभी क्रियाएं होली पर परम्परा के रूप में स्वत: होकर ऋतुजनित दोषों के शमन में होली की क्रियाएं सहायक हैं। चिकित्सा में रंगों का अपना महत्व है। रंगों से सरोबार करने वाली होली मानव स्वास्थ्य में रंगों की आपूर्ति को सिद्ध करती है। ढाक व पलाश पुष्पों के प्रयोग का आयुर्वेद में समुचित महत्व है, होली पर इन पुष्पों का प्रयोग शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करने में सहायक है। चान्द्र गणना में मास का अन्त पूर्णिमा को होता है। इस दृष्टि से फाल्गुन पूर्णिमा को चैत्र के साथ साथ पुराने सम्वत् को दहन कर बीते वर्ष की कटु स्मृतियों को जलाकर आनन्द उत्साह के साथ नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से कहीं- कहीं किया जाता है। होली को मदन-महोत्सव के नाम से कामदेव के पर्व के रूप में मनाने की प्रथा भी रही है। वैष्णवों के लिए यह दोलोत्सव है। झूले में झूलते गोविन्द के दर्शन से मनुष्य बैकुण्ठ को प्राप्त करता है, ऐसा वर्णन ब्रह्मपुराण में मिलता है। ॥नरो दोलोगतं दृष्टवा गोविन्दं पुरुषोत्तमम्; फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं व्रजेत्॥ मनुष्य रूप में अवतरित होने वाले विष्णु के अवतारों राम व कृष्ण के साथ लोक परम्परा में होली का सम्बन्ध जुड़ता गया। ब्रज की होरी में राधा-कृष्ण का आगमन तथा अवध में "होली खेलें रघुवीरा अवध में" जैसे गीतों की कल्पना भारतीय समाज में अपने आदर्शों राम और कृष्ण से अन्तरड़्ग सम्बन्ध स्थापित करने की भावना का प्रकटीकरण है। राम व कृष्ण को सखा के रूप में लोकरञ्जक लीला करने की कल्पना हिन्दु समाज के हृदय में राम व कृष्ण के प्रति गूढ़ श्रद्धा का प्रतीक है। इस प्रकार होली का महत्व हमारे शरीर- मन व सामाजिक समरसता- सामञ्जस्य के लिए अतुलनीय व विलक्षण है। परम्परा में आए दोषों व विकृतियों को त्याग होली के महत्व को समझ कर भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दृढ़ करते हुए होली उत्सव का आनन्द लें। होली की शुभकामनाएं।

Comments

Popular posts from this blog

Chaturvedis' of Mathura

आम की लकड़ी का स्वस्तिक

Lord Krishna's Children